आत्मज्ञान से ही प्रेम संभव है : निष्काम प्रेम की शर्तें
आत्मज्ञान वह बीज है जो व्यक्ति के मन में प्रेम रूपी पौधे का विकास करता जाता है| पुराने ऋषि मुनि, संत और हमारे वेद पुराण आत्मज्ञान का रास्ता बतलाते आये हैं| आज हम बात करेंगे कि संत के मन में प्रेम कैसा हो ? यानि प्रेम का असली रूप कैसा होना चाहिए
एक इच्छा ऐसी भी है जो सभी इच्छाओं से महान है। इस इच्छा को पूरी करने के लिए मनुष्य अत्यंत सादगी भरा जीवन अपनाने को तैयार हो जाता है जिसका हमें अंदाजा भी नहीं है। उस स्थिति को पाने का अधिकार सभी को है परंतु उसे पाने की प्रक्रिया की शुरुआत करने के लिए दृढ़ निश्चय की आवश्यकता है।
यह महान इच्छा मन की शांति (आत्मज्ञान द्वारा), निष्काम प्रेम तथा अमरत्व प्राप्त करने से संबंधित है।
सम्राट अशोक, जिसका भारत में विशाल साम्राज्य था, ईसा से 261 वर्ष पूर्व कलिंग प्रदेश के महान युद्ध में बड़ी संख्या में हुए नरसंहार से उसका मन विचलित हो गया। युद्ध में डेढ़ लाख लोग मारे गए और एक लाख लोगों की हत्या की गई। उस मानसिक हालत में उसने एक बौद्ध भिक्षुक को देखा जो नंगे पैर बिना किसी सामान के चला जा रहा था लेकिन उसके चेहरे पर आत्म-संतुष्टि के भाव थे। मन की शांति के लिए सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपना लिया, इसके प्रसार में सहायता दी और मानवता की भलाई में लग गया।
आध्यात्मिक दृष्टि से उस संत को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है जो भक्ति के साथ-साथ ज्ञान मार्ग में भी पारंगत हो। ऐसा संत उस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु बड़ी संख्या में जनसमूह को आकर्षित कर सकता है। वह प्रत्येक को उसकी रुचि के अनुसार आसान साधना बताता है क्योंकि वह भक्ति एवं ज्ञान से परिपूर्ण होता है। अन्य लोगों पर वह प्रेम बरसाने में प्रवीण होता है।
हमारी अंतिम इच्छा निष्काम प्रेम से संबंधित है लेकिन जिन्होंने अभी तक सर्वत्र प्रेम का पाठ नहीं पड़ा है उनके लिए निष्काम प्रेम को अपनाने के लिए कुछ शर्तें हैं। इन शर्तों को पूरा करके ही कोई अपने अंदर निष्काम प्रेम का विकास तथा इसका आनंद उठा सकता है। सर्वप्रथम, साधक को अपने मन की उन सामान्य प्रवृत्तियों को नियंत्रित करना होगा जो प्रेम को फलने-फूलने में रुकावट पैदा करती हैं। सच्चे साधक के लिए नीचे कुछ शर्तें दी गई हैं जिनमें से कुछ उसके लिए लागू होती हैं :
• प्रेम मन से किया जाता है न कि इंद्रियों द्वारा।
• प्रेम के बदले प्रेम मिलना आवश्यक नहीं।
• ऐसा भी संभव है कि प्रेमपात्र में आपके अनुसार कोई गुण ही न हो।
• प्रेमपात्र आपसे घृणा कर सकता है तथा आपके विरुद्ध प्रचार कर सकता है। वह आपके प्रेम को ठुकरा कर आपसे दुश्मनी ठान ले।
• उसका आचरण या कार्य आपको पीड़ा दे।
• प्रेमपात्र आपसे इतनी घृणा करे कि सबके सामने आपको भला-बुरा कहे और आपकी छवि धूमिल करे।
• प्रेमी एवं प्रेमपात्र की उम्र पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।
भगवान द्वारा (अपनी सृष्टि की सहायता से) उपरोक्त व्यवहार कितने ही संतों के साथ किए गए हैं। लेकिन आश्चर्य यह है कि संतों ने भगवान के चरणों को नहीं छोड़ा और भगवान को उन्हें इच्छित प्रेम प्रदान किया। किसी भी साधक को जीवन भर अपने को भगवान का प्रेमी या भक्त कहलवाने की आशा नहीं रखनी चाहिए। शायद यह स्थिति बड़ी निराशाजनक प्रतीत होती है। लेकिन संत इस सबके बावजूद भी इसे भगवान की तरफ से अमूल्य उपहार समझते हैं।
एक संत यह मानकर चलता है कि “दूसरों से उम्मीद रखना” नामक बीमारी से वह ग्रसित था और उपरोक्त शर्तों के पालन में हुई वेदना के सहन करने से वह बीमारी दूर हो गई है।
इस प्रकार, शास्त्र एवं संत भगवान के साथ प्रेम के संबंध की वकालत करते हैं जो अशांत मन को आश्रय प्रदान करती है, भले ही अपना सर्वस्व ही क्यों न लुटाना पड़े।
प्रसाद जी के पूर्व प्रकाशित लेख इस प्रकार हैं:-
मानव जीवन क्या है
जीवन का लक्ष्य क्या है ?
मानव मन और ब्रह्मांड की सीमा
मृत्युदेव : अध्यात्म के महान गुरु