सभी का हित चाहना ही संतों का स्वभाव होता है

December 11, 2017

शील, क्षमा ही संतों का स्वभाव है

एक संत बहुत ही साधारण तरीके से एक छोटी-सी झोंपड़ी में रहते थे। सोने के लिए एक चटाई थी जिस पर वह एक चादर बिछाकर और चार-पाँच ईंटों का तकिया लगा कर सोते थे। एक दिन रात को उन्हें पैर पर कुछ कीड़ा रेंगता हुआ महसूस हुआ। हाथ से उसे हटाना चाहा तो उसने काट लिया।

Kabir Vani

वह एक बिच्छू था और उसने हाथ में डंक मार दिया। दर्द के मारे संत तिलमिला गए। डंक तो उन्होंने निकाल दिया लेकिन दर्द बढ़ता ही जा रहा था। हाथ पर कुछ सूजन भी आ गई और डंक के स्थान पर हाथ नीला पड़ गया। सुबह उनके भक्तों ने उनका हाथ देखा तो घबड़ा गए। उन्होंने संत से पूछा कि क्या बिच्छू को आपने मार दिया।

संत ने उत्तर दिया कि भई! उसका तो स्वभाव ही है कि कोई उसे छेड़े तो अपनी सुरक्षा के लिए तुरंत डंक मार दे।

इसी प्रकार एक राजपूत सायंकाल के समय अन्य शिष्यों के साथ एक संत के उपदेश सुनने जाया करता था। उसकी पत्नी को यह पसंद न था। अतएव उसने एक युवा स्त्री को समझा-बुझाकर तैयार किया। वह स्त्री संत के स्थान पर गई जबकि वह शिष्यों को उपदेश दे रहे थे। वह सबके सामने संत से बोली कि महाराज! (अपना फूला हुआ पेट दिखाती हुई) यह आपका दिया हुआ बच्चा मेरे गर्भ में पल रहा है इसका भी कुछ ख्याल कीजिये।

महाराज बोले क्यों नहीं देवी, अभी मैं प्रवचन समाप्त होने के बाद इसका इंतजाम करता हूँ। सभी शिष्य सन्न रह गए। उन्होंने उस स्त्री से पूछा कि असलियत क्या है? शिष्यों के प्रश्नों की बौछार के आगे वह स्त्री ठहर न सकी और रोने लगी।

अंत में उसने बताया कि आपके राजपूत शिष्य की पत्नी ने मुझे सिखा कर भेजा है। यह सुनते ही वह राजपूत अपनी तलवार लेकर पत्नी को मारने चला। तब संत ने उसे समझा-बुझाकर शांत किया। राजपूत की स्त्री भी बाद में उनकी शिष्या बन गई।

इन सबका तात्पर्य है कि अहित करने वाले का भला चाहना संत का स्वभाव है –

श्रीमद भगवद्गीता में उल्लेख है –

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्‍कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥

भावार्थ : जो मनुष्य किसी से द्वेष नहीं करता है, सभी प्राणियों के प्रति मित्र-भाव रखता है, सभी जीवों के प्रति दया-भाव रखने वाला है, ममता से मुक्त, मिथ्या अहंकार से मुक्त, सुख और दुःख को समान समझने वाला, और सभी के अपराधों को क्षमा करने वाला है वह मेरा भक्त है।

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्‌ ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥

भावार्थ : श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि (सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अन्न से आहार की तथा यथायोग्य बर्ताव से आचरणों की और जल-मृत्तिकादि से शरीर की शुद्धि को बाहर की शुद्धि कहते हैं तथा राग, द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश होकर अन्तःकरण का स्वच्छ हो जाना भीतर की शुद्धि कही जाती है।)

हमारे अंदर बैर-भाव की भावना बहुत ही प्रबल है। इसका आधार जाति, धर्म, संप्रदाय आदि माने जाते हैं। इस भावना को हमें अंदर से त्यागना आवश्यक है तभी हम आत्मोद्धार की ओर बढ़ सकते हैं।

संतों के स्वभाव और उनके हितकारी व्यवहार से अवगत कराता यह लेख हमें स्वामी प्रसाद शर्मा जी ने भेजा है| स्वामी जी के अन्य लेख भी हिंदीसोच पर प्रकाशित होते आये हैं| स्वामी जी के सभी लेख उच्च कोटि के हैं, यहाँ हम उनके लेखों की लिस्ट दे रहे हैं जिन्हें आप पढ़ सकते हैं..

प्रसाद जी के पूर्व प्रकाशित लेख इस प्रकार हैं:-
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