मानव मन और ब्रह्मांड की सीमा

June 12, 2017

हमारा मन सीमाओं में बंधा है, बेचैन है, लेकिन जिज्ञासु है। यह ऐसे प्रश्नों में उलझ सकता है – ब्रह्मांड कितना बड़ा है? अगर इसे नाप भी लिया जाये तो इसके परे क्या है?

Human Mindमन जिसकी कोई भौतिक पहचान नहीं है तथा इसकी शरीर में कोई निश्चित जगह भी नहीं है, यह तो बस विचारों का प्रवाह है। मन के विचारों के अनुसार मनुष्य काम करता है – दु:ख-सुख महसूस करता है, असंतोष व्यक्त करता है तथा कभी-कभी आत्महत्या कर बैठता है। अतएव विचारक, वैज्ञानिक एवं दार्शनिक इस प्रश्न पर विचार करते हैं – ब्रह्मांड कितना बड़ा है और किसने इसे बनाया?

एक मेंढक तालाब की सीमित जगह में खुश था जब तक कि वह बाहर के मेंढक से न मिला। बाहर के मेंढक ने बताया कि तालाब के बाहर काफी विस्तृत जगह है। तालाब के मेंढक ने ज़ोर से उछाल मारी और पूछा कि क्या इतनी बड़ी जगह है? दूसरे मेंढक ने जबाव दिया कि इससे तो काफी अधिक है तथा मेरी कल्पना से भी ज्यादा है। पहले मेंढक ने कहा कि मुझे विश्वास नहीं है। तो मेरे साथ आओ और स्वयं देखो कि कितनी जगह है, दूसरे मेंढक ने कहा।

पाँच साल की उम्र में पहली बार मैं शहर से अपने गाँव में गया। जब हम गाँव में पहुंचे तो अंधेरा हो चुका था। सुबह मैं जब बाहर गया और गाँव के अन्य बच्चों के साथ गाँव से बाहर गया तो जमीन एवं हरियाली का असीमित विस्तार देखा। मैंने मन में सोचा कि यदि मैं नाक की सीध में चलता जाऊँ तो कहीं तो इस पृथ्वी का अंत होगा (माना कि पृथ्वी चौरस है)। यदि कोई उस सीमा से एक कदम भी आगे जाएगा तो ब्रह्मांड की अनंत गहराइयों में समा जाएगा। यह सोचकर मैं डर गया।

इस ब्रह्मांड का आकार नापने में वैज्ञानिकों के पास टेलेस्कोप है जो आकाश में चारों ओर सीमित दूरी के ग्रह-तारे प्रेक्षित कर सकता है। यद्यपि हमारे पास शून्य एवं अनंत की संकल्पना है परंतु यह सामान्य मानव मन की कल्पना से परे हैं।

दूसरी तरफ, भारतीय दार्शनिक समय एवं दूरी की संकल्पना को आत्मा की सत्ता के आगे नकार सकते हैं। उनका विश्वास है कि भौतिक शरीर के प्रभाव में हम समय एवं दूरी, पाप-पुण्य जैसे विरोधी विचारों से ग्रस्त हैं। जीवित रहते हुए उनका लक्ष्य अपनी स्वयं की आत्मा का साक्षात्कार कर लेना है तथा जीवित एवं अजीवित के प्रति प्रेम की भावना का विकास करना है। वे महसूस करते हैं कि यह ब्रह्मांड उनसे ही संबन्धित है अतएव उनके मन में किसी के प्रति घृणा, दुश्मनी, स्पर्धा, धन संग्रह एवं अन्य बुराइयों का भाव नहीं होना चाहिए।

जब तक उनका शरीर है सामाजिक मान्यताओं के अनुसार न्यूनतम उपभोग उन्हें स्वीकार्य है। उनके अंदर इस भावना का विकास हो जाता है कि इस सृष्टि का वास्तविक उद्देश्य प्रेम की भावना से आनंद उठाना है। वे अपने अमृतत्व तथा प्रेम की उत्कृष्ट भावनाओं को पुनः प्राप्त कर लेते हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि हम इस भौतिक शरीर के लिए अमरता एवं प्रेम की उत्कृष्ट भावनाओं की इच्छा करते हैं। मानव समाज जीवनदायक औषधि, क्षतिग्रस्त शारीरिक अंगों के बदलने की तकनीक, बुढ़ापे से बचाव एवं सदैव प्रसन्नचित रहने के इंतजार में है। हम में से अधिकतर ने कभी मोक्ष द्वारा जन्म, मृत्यु, बीमारी, बुढ़ापा से पीछा छुड़ाने की नहीं सोची। श्रीमदभगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि इन चारों के बारे में निरंतर विचार करते रहने से मनुष्य बुद्धिमान बन जाता है। इन चारों से लोग घृणा करते हैं जिन पर भगवान ने विचार करने को कहा है। भगवान बुद्ध जीवन के इन चार सत्यों के कारण उद्वेलित हुए और अपना उद्धार किया।

ब्रह्मांड में तीन आवश्यक तत्व मौजूद हैं: भगवान, जीवात्माएं (आत्मायेँ, परमेश्वर का हिस्सा), और भौतिक दुनिया। ये सब अनन्त हैं। जीवात्माओं का लक्ष्य भौतिक संसार के बंधन से मुक्त होना है, अर्थात अपने वास्तविक स्वभाव को महसूस करना है और इस शरीर के रहते ही प्रेम और करुणा की बेहतर भावनाएं प्राप्त करना है।

संत शायद ही ब्रह्मांड के आकार के बारे में चिंतित होते हैं। वे ब्रह्मांड या भगवान को सीमित नहीं करना चाहते। वे अपनी सच्ची पहचान और ईश्वर की प्राप्ति की वकालत करते हैं ताकि सभी संदेह दूर हो जाएँ। वे कहते हैं: व्यावहारिक रूप से विविधता में एकता खोजें।

मित्रों यह लेख हमें स्वामी प्रसाद शर्मा जी ने भेजा है उनका मानव जीवन क्या है ? और जीवन का लक्ष्य क्या है ? लेख के बाद यह अगला लेख है उनके लिखने की कला और बात को समझाने का ढंग वाकई प्रशंशनीय है| आगे भी प्रसाद जी के लेख प्रकाशित होंगे इसके लिए स्वामी प्रसाद शर्मा जी को दिल से धन्यवाद